Back to resources

आदिवासियों का कर्ज है हम सब पर, बंग दंपती उसका हिस्सा चुका रहे हैं

Climate & Biodiversity | Feb 11, 2020

इस नए दशक की शुरुआत में खुशकिस्मती से मुझे एक प्राचीन इलाके में जाने का मौका मिला जो अपनी हालिया परेशानी से उबर रहा है। विदर्भ का गढ़चिरौली, भारत के सबसे पिछड़े आदिवासी जिलों में से एक है। वहां गोंंड आदिवासियों के वनक्षेत्र में देश के 8 करोड़ आदिवासियों की तरह ही गोंड लोगों का सामना भी अस्तित्व से जुड़े सवालों से होता है।

आधुनिक अतिक्रमणकारी दुनिया के साथ उन्हें कितना आत्मसात करना चाहिए? वे अपनी पुरातन सांस्कृतिक प्रथाओं को कैसे जिंदा रख सकते हैं, जो जंगल से कसकर जुड़ी हैं? वह पारंपरिक ज्ञान को आने वाली पीढ़ियों में कैसे संरक्षित कर सकते हैं, जिनकी महत्वाकांक्षाएं तेजी से बदल रही हैं?

34 सालों से इन समुदायों के साथ जीने और काम करनेवाले डॉ अभय और राणी बंग ने भी इन सवालों को महसूस किया है। वह गांधी जी और विनोबा भावे से गहरे प्रभावित हैं। अमेरिका से डॉक्टरी की पढ़ाई करनेवाले इन दो लोगों ने स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतों पर ध्यान केंद्रित किया है।

साल दर साल जो देखा, सुना, पढ़ा उसकी बदौलत हेल्थ प्रैक्टिस के ऐसे मॉडल तैयार किए हैं जो समुदाय की ज़रूरतों से वास्ता रखते हैं। नतीजे शानदार हैं, शिशु मृत्युदर कम हुई है और बाकी बीमारियों का बोझ ऐसे स्तर पर पहुंचा चुका है जहां वह देशभर में ही नहीं बल्कि बाकी देशों खासकर अफ्रीका में मॉडल बन चुका है।
संगठन का नाम ‘सर्च’ है, सोसायटी फॉर एजुकेशन, एक्शन एंड रिसर्च इन कम्युनिटी हेल्थ। और 55 एकड़ में बना उनका खूबसूरत कैम्पस कहलाता है ‘शोधग्राम’। अलग-अलग क्षेत्रों के युवा प्रोफेशनल को जिसने अपने यहां आकर रहने, काम करने, समाज की असाध्य परेशानियों को हल करने के लिए अनुसंधान और प्रयोग करने को प्रोत्साहित किया।

टीम की लगन और प्रतिबद्धता अनुकरणीय है। मैं जब वहां थी तो एक सर्जरी कैम्प चल रहा था, जिसके लिए सर्जन दूर-दूर से श्रमदान करने आए थे। डॉक्टर्स ने मुझे बताया कि वह श्रमदान उनके लिए नई स्फूर्ति भरने वाला था, संतोषजनक अनुभव जिसे वह बार-बार दोहराना चाहेंगे। मरीजों का कहना था कि वह यहां इसलिए आए हैं क्योंकि यहां उन्होंने बेहतरीन मेडिकल केयर के साथ दया और गरिमा का अनुभव किया है।

जिसने मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित किया वह ये कि बंग दंपती ने अंध विचारधारा में अपने दृष्टिकोण को कठोर नहीं किया। उस वक्त जब देश में अत्यधिक ध्रुवीकरण हो रहा है, तब इस खुले विचारों वाले संगठन का मिलना सुखद है।

सर्च ने अपनी वैज्ञानिक जिज्ञासा और साक्ष्य आधारित दृष्टिकोण के साथ-साथ मानवतावादी धारणा को बरकरार रखा है। डॉ राणी अपने दिल की ज्यादा सुनती हैं और डॉ अभय दिमाग से चलते हैं। और उन दोनों से जब गलती होती है तो वह उसे मानने से डरते या झिझकते नहीं हैं।

डॉ अभय कहते हैं बतौर वैज्ञानिक वह सिकल सेल के मामलों पर रिसर्च करना चाहते थे। पर उन्हें समझ में आया कि यह आदिवासी समुदाय की मूलभूत समस्या नहीं है। निमोनिया, शिशु मृत्यु और नशे की लत पर काम ज्यादा जरूरी था। जिस अनुसंधान की शुरुआत आदिवासियों के लिए हुई थी अब वह उनके जीवन से जुड़ गया था।

यहां ट्रेनिंग ले चुकी अंजना बाई गर्व से कहती है कि उनकी देखरेख में पिछले कई सालों में एक भी बच्चे की मौत नहीं हुई है। वह मुझे एक नवजात बच्चे के घर भी ले गईं। छोटे बदलावों से यह संभव हो पाया है। नई माएं पहले बच्चों को बिना कपड़ों के रखतीं थीं जिससे उन्हें हाईपोथर्मिया का खतरा रहता था।

आज परिवार और हेल्थ वर्कर बच्चों की नियमित देखभाल करते हैं। टीम यह सुनिश्चित करने के लिए कड़ी मेहनत करती है कि वह अपनी धारणाएं आदिवासियों पर न थोपें। सरकार के साथ मिलकर चलाए जा रहे प्रोग्राम मुक्तिपथ के जरिए शराब और तम्बाकू पर खर्च को काफी कम कर दिया गया है। जिस पर सरकारी स्कीमों से भी ज्यादा खर्च होता था।

कुछ ही सालों पहले तक यह नक्सलवाद का गढ़ था। जब स्थानीय आदिवासियों को नक्सलियों और पुलिस के बीच जारी शिकंजे के चलते मुखबिरों की खोज में फंसाया जाता था। आसपास के जंगलों में अभी भी कई क्रांतिकारी छिपे हैं। उनकी विचारधारा के लिए सरकार के हस्तक्षेप से ज्यादा प्रतिस्पर्धा बंग की निरंतर क्रांति है।

वह क्रांति जो गोंड आदिवासियों के उत्थान और समृद्धि के लिए निस्वार्थ तौर पर प्रतिबद्ध है। आज वह गढ़चिरौली जहां पहले सुरक्षित पहुंचना भी असंभव था, धीरे-धीरे देश की मुख्य धारा से जुड़ रहा है। अब कॉलेज, दुकान और अस्पताल हैं, अच्छी सड़क और कनेक्टिविटी भी है। लेकिन क्या आदिवासी हमारी तरह आधुनिक बनेंगे? या हमारे पास उनसे सीखने की सहूलियत होगी?

यह सवाल अनुत्तरित है। गढ़चिरौली से लौटते हम ले आए हैं खूब सारी शुद्ध हवा अपने भीतर भरकर। हम शुकरान हैं महुआ, तेंदू और सागौन के उन पेड़ों के, उन गोंड आदिवासियों के जो इन प्राचीन जंगलों के खिदमतगार रहे हैं। इन आदिवासियों का हमारे देश पर बड़ा कर्ज है। और बंग दंपति उसका एक छोटा सा हिस्सा चुकाने की कोशिश सालों से कर रहे हैं।

Hindi PDF

Gujarati PDF

Marathi PDF

More like this

Climate & Biodiversity

What Lies Beyond the Great Anthropause

The virus has shown us the impact of a disregard for nature. Small changes to urban lifestyles could make a big difference Recently, Apple TV released a documentary called The Year Earth Changed. It takes viewers through some delightful scenes of what happened in the world of wild animals while humans were forced to take […]
May 8, 2021 |

Climate & Biodiversity

एक दूसरे के साथ बातें करने से स्वस्थ रहते हैं पेड़

परवाह… इस बार त्योहारों में परिवार के साथ उत्सव मनाते हम कुछ वक्त पेड़ों के रोचक दुनिया को भी जानें। अब ज्यों ही त्योहारों का मौसम आ रहा है, हम इस साल भरपूर मानसून के लिए खुश हो सकते हैं। दुर्भाग्य से कई इलाके ऐसे भी हैं जहां बाढ़ के गंभीर हालात बने। इस देश […]
Oct 5, 2019 | Article

Animal Welfare  |  COVID-19  |  Climate & Biodiversity

Why Shutting Down Reserves to Prevent Covid Transmission to Tigers is a Questionable Move

A blanket ban could endanger wildlife and human livelihoods. India must seize opportunity to innovate to live with and reduce the risk from the inevitable future contagion * India’s Project Tiger is a success by any measure. Our 51 tiger reserves now boast of at least 3,000 tigers. More and more Indians flock to safari […]
Jun 14, 2021 |

Climate & Biodiversity

Climate change conversation

The author was in conversation with Rohini Nilekani, chairperson, Arghyam Foundation, R Sukumar, Professor, Centre for Ecological Sciences, MSc, J Srinivasan, Professor, Centre for Atmospheric and Oceanic Sciences, HSc and Kartik Shanker, director, ATREE and Dakshin Foundation. View PDF
Aug 8, 2016 | Article